शी जिनपिंग दूसरा माओ बनना चाहते हैं, उन्हें लगता है कि भारत-अमेरिका से पंगा उनकी छवि चमकाएगा

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चीन की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने के बजाय शी सबसे शक्तिशाली वैश्विक किरदार (अमेरिका) और सबसे ताकतवर क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धी (भारत) को चुनौती देने की रणनीति पर चल रहे हैं.

चीन अपने दो प्रतिद्वंद्वियों से लड़ाई मोल लेने पर उतारू दिखता है– क्षेत्रीय स्तर पर भारत और वैश्विक स्तर पर अमेरिका से. और वह पिछले कुछ महीनों के दौरान दोनों के खिलाफ बारी-बारी से अपना ज़ोर दिखा रहा है.

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए चीन ने हाल ही में विवादित स्प्रैटलीज़ द्वीपों के पास दक्षिण चीन सागर में मध्यम दूरी की कई मिसाइलों का परीक्षण किया है. जबकि लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) भारत के साथ उसकी तनातनी जारी है, और दोनों पक्षों की राजनीतिक-सैन्य वार्ताओं में कोई खास प्रगति नहीं हो रही है. यदि टकराव जारी रहा तो किसी सैन्य विकल्प से इनकार नहीं किया जा सकता, जो कि रक्षा सेवा प्रमुख (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत के हालिया बयान से जाहिर है.

चीन की इन गतिविधियों के पीछे राष्ट्रपति शी जिनपिंग की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की भूमिका है.

शी दूसरा माओ बनने की उम्मीद पाले हुए हैं. हाल ही में उन्हें हटाए जाने के प्रयासों के बारे में भी अफवाहें सामने आई थीं. इसलिए वह अधीर नज़र आते हैं. ऐसी खबरें हैं कि वह माओ द्वारा सुशोभित चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के चेयरमैन के पद को पुनर्स्थापित करना चाहते हैं. यदि ऐसा हुआ तो सीसीपी के चेयरमैन के रूप में अपना चौथा औपचारिक कार्यकाल हासिल कर वह जनता के बीच खुद को आधुनिक माओ दिखाने की कोशिश करेंगे. ऐसा करने से उन्हें अपने शासन के किसी भी तरह के विरोध को ध्वस्त करने में मदद मिलेगी.

लेकिन इसके लिए शी जिनपिंग को अपनी जनता की नज़रों में खुद की वैश्विक नेता की छवि भी बिठानी पड़ेगी. इसी उद्देश्य के लिए शी सबसे शक्तिशाली वैश्विक किरदार (अमेरिका) और सबसे ताकतवर क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धी (भारत) को चुनौती देने की रणनीति पर चल पड़े हैं.

बारी-बारी से अमेरिका और भारत की चुनौती

कोविड-19 महामारी के कारण चीन की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और आम चीनियों के कल्याण पर ध्यान देने के बजाय शी ने भारत के खिलाफ अपनी विस्तारवादी नीति को आजमाने के लिए अपने पश्चिमी सैन्य सेक्टर पर फोकस किया है. इसकी अन्य वजहें हो सकती हैं- कोरोनावायरस की उत्पत्ति पर छिड़े विवाद में चीन को भारत का साथ नहीं मिलना, और जम्मू कश्मीर को स्वायत्तता देने वाले अनुच्छेद 370 और 35ए को निरस्त करने की भारत की एकतरफा कार्रवाई. उसने सैनिक अभ्यास के बहाने चुपके से सैनिक जमावड़ा करके पूर्वी लद्दाख के पैंगोंग त्सो के फिंगर कहे जाने वाले इलाकों, हॉट स्प्रिंग और गलवान में अतिक्रमण की कई वारदातें की हैं.

अप्रैल-मई में, कोविड-19 की उत्पत्ति को लेकर ट्रंप प्रशासन के साथ हुई झड़प के बाद शी जिनपिंग ने दक्षिण चीन सागर में सैन्य कार्रवाइयों के ज़रिए स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश की है.

सर्वप्रथम, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी एयरफोर्स (पीएलएएएफ) ने ताइवान के पास अप्रैल में 36 घंटे का सतत सैन्य अभ्यास किया. उसके तुरंत बाद पीएलए नौसेना के विमानवाही पोत लियाओनिंग और पांच युद्धक पोतों के बेड़े को मियाको जलसंधि से होकर गुजारा गया. ताइवान को चीनी शक्तिप्रदर्शन की प्रतिक्रिया में अपने युद्धक विमानों और पोतों को सक्रिय करना पड़ा था. उससे पहले मार्च में पीएलएएएफ के प्रथम रात्रिकालीन मिशन की खबरें सामने आई थीं.

इसके बाद, अमेरिकी रक्षा मंत्री मार्क एस्पर के अनुसार, चीन ने फिलिपींस की नौसेना के पोत को धमकाने, वियतनाम की एक मछलीमार नौका को डुबोने तथा क्षेत्र में फिशिंग तथा तेल-गैस उत्खनन को लेकर क्षेत्र के अन्य देशों को डराने-धमकाने का काम किया है. इन परिस्थितियों में अमेरिका को क्षेत्र के देशों में आत्मविश्वास भरने के लिए दक्षिण चीन सागर में बारी-बारी से दो फ्रीडम ऑफ नेविगेशन अभियान (एफएन ऑप्स) चलाने पड़े. शी के ताजा क्रियाकलापों की एक और वजह हांगकांग के आंदोलन से अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान बंटाना भी हो सकती है. वहां चीन द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू किए जाने की प्रतिक्रिया में आंदोलन शुरू हुए हैं.

चीन को उसी की भाषा में अमेरिका और भारत का जवाब

भारतीय और चीनी बलों के बीच सीमा पर तनातनी होती ही रही है, लेकिन इस बार चीन ने दोनों देशों के बीच हुए सीमा प्रबंधन समझौतों का उल्लंघन किया. चीन ने लद्दाख की गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों पर अकारण हमला किया, जिसमें 20 भारतीय सैनिक लड़ते हुए शहीद हो गए. भारत सरकार के अनुसार भारतीय जनहानि के मुकाबले चीनी पक्ष को ‘दोगुनी से भी अधिक’ मौतों का सामना करना पड़ा है.

दक्षिण चीन सागर में विमानवाही पोतों को नष्ट करने में सक्षम मध्यम दूरी की मिसाइलों डीएफ 21डी और डीएफ 26 को दाग कर चीन ने अमेरिका को एक रणनीतिक संदेश देने की कोशिश की है कि वह दक्षिण चीन सागर के द्वीपों और ताइवान पर उसके दावे के मामले में नहीं पड़े.

31 अगस्त को, अमेरिकी हिंद-प्रशांत कमान के तीसरे बेड़े ने अपना छमाही सैन्य अभ्यास संपन्न किया. बेड़े के कमांडर वाइस एडमिरल स्कॉट डी. कॉन ने कहा है कि अमेरिका चीनी कार्रवाइयों से डिगेगा नहीं क्योंकि दक्षिण चीन सागर समेत पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसके 38 पोत मौजूद हैं. शी को हतोत्साहित करने की कार्रवाइयों के तहत अमेरिका ने 24 चीनी कंपनियों पर इस आधार पर प्रतिबंध लगा दिए हैं कि उन्होंने दक्षिण चीन सागर में चीन के विवादास्पद द्वीप विकास कार्यक्रम में योगदान किया था.

एकजुट मोर्चे की दरकार

वैश्विक स्तर पर चीन निर्विवाद रूप से दूसरी सबसे बड़ी शक्ति है और ऐसा लगता है कि वह अमेरिका के संकल्प की परीक्षा ले रहा है. वह नाइन-डैश लाइन तक के इलाके पर अपना अधिकार चाहता है, ताकि अमेरिका का प्रभाव खत्म करना तथा वियतनाम, फिलिपींस और मलेशिया जैसे क्षेत्रीय किरदारों को दबाकर रखना, और साथ ही ताइवान को अपने में आत्मसात करना संभव हो सके. उल्लेखनीय है कि ताइवान पर चीन अपना अधिकार जताता है. इसी तरह, यदि वह भारत को बेअसर कर पाता है, तो उससे क्षेत्र के देशों को चीनी इशारे पर चलने का स्पष्ट संदेश जाएगा.

किनसे या किन कारणों से शी का खेल बिगड़ सकता है? चीन की अगुआई वाली तथा उत्तर कोरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की, रूस (?) और अफ्रीकी महाद्वीप के कतिपय छोटे देशों द्वारा समर्थित शक्ति की धुरी का मुकाबला समान सोच और साझा अंतरराष्ट्रीय हितों वाले देशों के संयुक्त वैश्विक गठबंधन से किया जाना चाहिए. अच्छा हो कि अमेरिका इस गठबंधन का नेतृत्व करे, जबकि जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत, यूएई, सऊदी अरब, कुवैत, इज़रायल, फ्रांस, ब्रिटेन, फिलीपींस और मलेशिया उसे समर्थन दे. चीन का मौजूदा रवैया यदि आगे जारी रहता है तो फिर क्वाड जैसे संगठनों का सैन्यीकरण ज़रूरी हो जाएगा.

उपरोक्त समीकरण में रूस की एक अनिश्चित भूमिका है. वर्तमान में उसका चीन की तरफ भारी झुकाव नज़र आता है. अपने हितों की रक्षा के लिए भारत को उसे अपने पाले में लाना होगा या कम से कम उससे तटस्थ रहने का आग्रह करना होगा. कहने की ज़रूरत नहीं कि रूस को सावधानी से साधने की ज़रूरत है.

आखिर करना क्या होगा

भारत को एक शक्तिशाली समुद्री बल की आवश्यकता है. इस नए अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में एक अहम किरदार बनने के लिए, भारतीय सशस्त्र बलों को मलक्का जलडमरूमध्य से लेकर हॉर्न ऑफ अफ्रीका तक जवाबी कार्रवाई करने में सक्षम होना चाहिए. लेकिन ऐसा करने के लिए, हमें अपनी समुद्री क्षमता को यथाशीघ्र बढ़ाना और उन्नत करना होगा. इसके लिए परमाणु क्षमता से लैस दो विमानवाही पोत आवश्यक होंगे. इस कार्य में संसाधनों और समय की ज़रूरत है, और भारत के संदर्भ में दोनों का ही अभाव है. इसलिए स्पष्ट है कि हमें सक्रिय हस्तक्षेप की प्रतिबद्धता वाले रणनीतिक साझेदारों का समर्थन चाहिए.

वर्तमान में चीन विरोधी वैश्विक आर्थिक सहयोग की भी दरकार है. चीन विरोधी समूहों के विभिन्न देशों को चीन पर अतिनिर्भरता खत्म करने के लिए आर्थिक रूप से भी परस्पर सहयोग करना चाहिए. यह काम मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं. रेयर अर्थ्स जैसे कुछ खनिज संसाधन केवल चीन में ही बहुतायत में पाए जाते हैं. हमें एक पुनर्गठित वैश्विक समूह के तहत इस वैकल्पिक गठबंधन को संभव बनाने के लिए एक विस्तृत आर्थिक अध्ययन करने की आवश्यकता है. संयुक्तराष्ट्र को भी पुनर्गठित करने और नया स्वरूप देने की ज़रूरत पड़ सकती है.

इससे भारत की सामरिक स्वायत्तता प्रभावित होने की संभावना नहीं है. यहां सुझाए गए कदम, कतिपय स्थितियों में सामरिक स्वायत्तता के हमारे कूटनीतिक सिद्धांत को कमज़ोर करते नज़र आ सकते हैं, लेकिन पर्याप्त सावधानी बरती जाए तो हम अपनी संप्रभुता पर कोई समझौता किए बिना इस राह पर चल सकते हैं. साथ ही, इन कदमों को चीनी कार्रवाइयों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिनमें अन्य देशों के राष्ट्रीय हितों की जगह नहीं है और जो कानून आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की अवहेलना में की जाती हैं. उपरोक्त सुझाव के संबंध में एक बड़ा सवालिया निशान 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम का है. इसलिए, हमें किसी भी भावी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति पर ज़ोर देने से पहले अमेरिकी चुनाव के परिणामों का इंतजार करना होगा.