सफ़र by मेजर जनरल अभि परमार (से.नि)
सफ़र
नयी उमर थी
नया सफ़र था
न रहनुमा ना
हमसफ़र था
मग़र वो जज़्बा
अजब था यारों
कदम जो निकले
तो रुक न पाये
जुनून देखा तो
लगा कि मानो
वक़्त सहम कर
ठहर गया था
न छांव देखी
न मोड़ देखे
न रास्ते का
छोर देखा
जो तय किया था
मन मे अपने
बस एक बार
उस ओर देखा
क्या सफर था
क्या डगर थी
मुझपर ठहरी
हर नजर थी
फिर न रास्ते के शूल देखे
न वादियों के फूल देखे
लगन में अपनी सब भुलाकर
मुश्किलों को गले लगाकर
आ ही पहुचे हम वहाँ तक
थे रास्ते आते जहाँ तक.
अभि परमार
7 Jul 24